रविवार, 1 मार्च 2020

बच्चों के भविष्य पर संवरते माताओं के कैरियर

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बच्चों की कुर्बानी पर संवरते माताओं के कैरियर_
पति पत्नी या लवर्स के आपसी संबोधन बाबू और पालतू जानवर बेबी हो गए, उनके लिए #अगाध प्रेम उमड़ रहा है, और जो सच में बाबू या बेबी हैं उनकी कोई पूछ नहीं कैसी विडम्बना है। जानवरों के लिए प्रेम होना अच्छी बात है, लेकिन फिल्मी स्टाइल में शोशेबाजी करना कितना सही है।
अधिकतर नौकरी पेशा माता-पिता को यह कहते सुना जाता है, आखिर हम यह किसके लिए कर रहे हैं बच्चों के लिए ही तो, लेकिन #सच तो यह है कि यह सब वे अपनी #स्वयं की संतुष्टि के लिए करते हैं। बच्चे को तो उनका समय, साथ चाहिए होता है जो वह उनको नहीं दे पाते, समय निकलने के पश्चात उस समय का कोई #उपयोगिता भी नहीं रह जाती है। कुछ समय पश्चात, बच्चे स्वयं भी आप से दूरी पसंद करने लगते हैं। कहा वर्षा, जब कृषि सुखाने। क्या हम दिल पर हाथ रख कर कह सकते हैं, कि हमने अपना फर्ज अच्छे से निर्वहन किया है। आप एक बार सोच कर देखिए, अगर बच्चे सही दिशा में आगे बढ़ते हैं तो यह पैरेंट्स के लिए ही नहीं पूरे समाज के लिए हितकर है, अन्यथा बड़े बड़े लोगों को एक समय पश्चात रोते देखा है। और यह ऐसा नहीं कि केवल नौकरीपेशा माताओं की ही बात है, घरेलू महिलाएं भी कहां पीछे हैं, वे भी बच्चों पर ध्यान नहीं देते हैं। नौकरी पेशा महिलाओं के छोटे बच्चे अक्सर सुबह के स्कूल में फ्रेश होकर नहीं जाते, नहाकर नहीं जाते, क्योंकि समय नहीं है। धीरे धीरे बच्चे भी इस दिन चर्या के अभ्यस्त हो जाते हैं। क्या यह उचित है।
कई बार देखने में आता है माता-पिता दोनों जॉब वाले हैं, अपना #गिल्ट छुपाने के लिए, बच्चों की #अनर्गल फरमाइशें पूरी की जाती हैं। छोटे बच्चे भी ब्लैक मेल करना खूब अच्छी तरह जानते हैं। और अपनी मनचाही मांग पूरी करवाते हैं। घूमना फिरना हो, मनचाहे कॉलेज में एडमिशन लेना हो या और भी कई अन्य बातें। बच्चे कब गलत संगत में पड़ जाते हैं पता ही नहीं लगता। सुविधा के लिए बच्चे के लिए कोई आया रख दी जाती है। क्योंकि आजकल पैरेंट्स को भी घर के बुजुर्ग कई बार बर्दाश्त नहीं होते हैं, और वह अपनी स्वतंत्रता में दखल मान उनको रखने के लिए तैयार नहीं होते हैं। तो कई बार बुजुर्ग भी अपनी जिम्मेदारी निभाने से हिचकिचाते हैं, वह अपनी सेवा की #लालसा पाले रहते हैं, ऐसे में उन्हें किसी आया या नैनी को रखना ही उचित लगता है। कई बार पैरेंट्स नौकरी की वजह से बच्चों को समय नहीं दे पाते, समय बचाने के चक्कर में बच्चों को जो मर्जी करने देते हैं, टीवी, मोबाइल या कोई गेम और इस प्रकार वह बच्चों को जो सिखाना चाहते हैं, नहीं सिखा पाते। नैनी, आया कुछ और सिखाती है, गाली गलौज भी सीख जाते हैं, और इस तरह बच्चा कंफ्यूज हो कर कुछ भी नहीं सीख पाता कि आखिर मुझे करना क्या है, वह जो कहना चाहता है कह नहीं पाता। और इस तरह से पूरी जिंदगी के लिए उसके अंदर #आत्मविश्वास की कमी हो जाती है। बेहतर होगा हम अपने #कैरियर पर अपने बच्चों की जिंदगी या #कुर्बान ना करें। क्या फायदा आपकी शिक्षा का।
कई बार देखने में आता है माता-पिता अपने #कैरियर के परवाह करते हुए बच्चों की पढ़ाई में पिछड़ जाने पर भी ध्यान नहीं देते, शुरू में सोचते हैं एक-दो साल विलंब हो जाए तो कोई बात नहीं, धीरे-धीरे यह उनके आदत में आ जाता है। और बच्चे भी बस सामान्य पढ़ते हुए रह जाते हैं, उम्र निकलने के बाद सिवाय पछतावे के कुछ हाथ नहीं लगता। काश! माता-पिता इस चीज पर गौर करें, तुम अपनी जिंदगी जी चुके हो, बच्चों की तरक्की देखकर खुश होना सीखिए। जब आपके बच्चे तरक्की करेंगे, आगे बढ़ेंगे, उस खुशी का किसी चीज से, किसी कैरियर से कोई मुकाबला नहीं है।
एकल परिवारों में रहते हुए बच्चों का कितना भावनात्मक, सामाजिक शोषण हो रहा है, यह अभी किसी की समझ में नहीं आ रहा है। कई बार बच्चे कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन आपके पास समय नहीं है, जिसका दुष्प्रभाव कुछ समय बाद देखने को मिलेगा। जो बच्चे अपने परिवार में बड़ों, छोटों के साथ में रहते हैं, उनका सामाजिक #व्यवहार और #समझ अच्छी होती है। कई चीजें जो हम केवल डांट कर नहीं सुधार सकते उसे हम परिवार में रहते हुए बड़े बुजुर्गों के सहारे से अच्छी तरह से समझा सकते हैं।
जब बच्चे अपने दादी, नानी से अपनी भाषा में बात करते हैं, किस्से कहानी सुनते हैं, तो उन्हें अपनी भाषा के साथ #संस्कृति के बारे में पता चलता है। कहानी सुनने से वे अपनी विरासत, संस्कारों को बचा पाते हैं। बच्चों में भाषा के प्रति जिज्ञासा और जागरूकता दोनों बढ़ती है। दादी नानी, बुजुर्गों से बात करते हुए, बच्चों की #शब्दावली बढ़ती है, उनकी कुछ समझ में नहीं आता तो वह पूछते हैं इसका मतलब क्या है। इस प्रकार वे नए नए #शब्द सीखते हैं। और जरूरत पड़ने पर उसका इस्तेमाल करते हैं। आजकल बच्चों को लोकोक्तियां और मुहावरों का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं है, क्योंकि यह उनके सुनने में ही नहीं आता है। जबकि पहले परिवारों में रहते हुए यह सारी चीजें उनको स्वतः ही ऐसे शब्दों और मुहावरों को आत्मसात करने लगते थे, इस तरह उनमें सुनने समझने का कौशल विकसित होता है। दिल पर हाथ रख कर सोचें, क्या आप ने बच्चों के साथ अपना फ़र्ज़ अच्छी तरह निभाया है। जब हमने अपना फर्ज अच्छे से निर्वहन नहीं किया है, तो बच्चों से भी उम्मीद ना रखें। वैसे उम्मीद तो किसी से भी नहीं रखनी चाहिए। आज दोनों पीढ़ियां एक दूसरे पर #दोषारोपण कर रही हैं। आप ने बच्चों को आया के भरोसे रखा, और बच्चों ने आप को वृद्धाश्रम के भरोसे। 
आप मेरी बात से कितने #सहमत हैं, अपनी राय अवश्य दीजिए।