बुधवार, 21 फ़रवरी 2024

भोजन पर विचारों का प्रभाव

हैलो पैरेंट्स! भोजन पर विचारों का प्रभाव ___
श्रद्धा और एकाग्रता से किया गया भोजन सदा बल और पराक्रम प्रदान करता है। क्रोध, विवाद, बेईमानी से कमाए धन, रोग शोक विचारों से ग्रस्त, अपमानपूर्वक तथा अश्रद्धा से तैयार किया गया  भोजन बल और पराक्रम दोनों को नष्ट कर देता है। इसलिए भोजन सदैव अच्छे आचार विचार, सही तरीके से कमाए धन से ही करना चाहिए। एक प्रसंग याद आ रहा है आप सब ने भी पढ़ा होगा। महाभारत में युद्ध समाप्ति के पश्चात पितामह भीष्म मृत्यु के इंतजार में सूर्य के उत्तरायण की प्रतीक्षा करते हुए शरशैया पर लेटे हुए थे। एक दिन पांचो पांडव द्रौपदी के साथ उनसे मिलने पहुंचे। भीष्म पितामह उनको धर्म, ज्ञान उपदेश की बातें बता रहे थे कि द्रौपदी खिलखिला कर हंस पड़ी। द्रौपदी एक विदुषी महिला थी, उनसे ऐसे व्यवहार की उम्मीद किसी को ना थी। उनके इस व्यवहार पर पांडव ही नहीं पितामह भी आश्चर्यचकित थे, उन्होंने द्रौपदी से इसका कारण जानना चाहा। द्रौपदी ने जवाब दिया_ आदरणीय पितामह! आज आप अन्याय के विरुद्ध लड़ने और धर्म उपदेश दे रहे हैं, लेकिन जब भरी सभा में मेरा चीरहरण कर अपमानित किया जा रहा था तब आप कहां थे? तब यह उपदेश धर्म ज्ञान कहां था? द्रौपदी की यह बातें सुनकर पितामह का आंखों में आंसू छलक पड़े, गला रूंध गया, कातर स्वर में बोले पुत्री! मुझे क्षमा करना ... तुम जानती हो उस समय में दुर्योधन का अन्य खा रहा था ... ऐसा अन्य खाने से मेरे संस्कार दूषित हो गए थे... मैं अन्याय का विरोध नहीं कर सका। लेकिन अब उस अन्न से निर्मित रक्त शरशैया के नुकीले बाणों पर लेटे हुए बह चुका है। मुझे फिर से अपने संस्कारों का बोध हो चुका है। यह सच है जैसा हम अन्न खाते हैं मन भी वैसा ही हो जाता है। इसीलिए हमेशा ही सही तरीके से कमाए हुए धन से ही भोजन करना चाहिए। आपने सबने एक कहानी और सुनी होगी किस तरह से एक संत एक चोर के यहां भोजन करके, उस चोर का घोड़ा ही चुरा ले गए थे। लेकिन बाद में दूसरी जगह जाने पर उन्हें इस चीज का बोध हुआ तो वह वापस उस चोर के यहां पर उस घोड़े को छोड़ उससे पूछने लगे कि तुम क्या काम करते हो तब उसने बताया कि मैं चोरी करता हूं इस तरह उन्हें महसूस हुआ कि एक चोर का खाना खाने से उनकी बुद्धि भी चोर जैसी ही हो गई थी। इसलिए सही है हमेशा खाने पीने में ईमानदारी, सच्चाई का अवश्य ध्यान रखें, नहीं तो दुर्बुद्धि आते देर नहीं लगती। इसीलिए हमेशा खाना पकाने वाला उत्तम, शुद्ध विचारों वाला होना चाहिए, ताकि उसका प्रभाव आपके खाने पर आपकी बुद्धि पर ना पड़े।
आयुर्वेद में कहा गया है _ जैसा खाए अन्न, वैसा हो जाए मन। एक और बात जो अन्न जहां पैदा होता हो, ऋतु अनुसार हो तथा वहीं के लोगों द्वारा उपयोग में लाया जाय तो वह औषधि के समान होता है, साथ ही सात्विकता से अर्जित तथा श्रद्धा, प्रेम पूर्वक पकाया गया हो तो उसका महत्व और बढ़ जाता है। खाने पर अच्छे आचार विचार का बहुत ही सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कई बार बुजुर्गों से कहते सुना होगा कि, अगर थकान परिश्रम से चूर हो कर आए हों, किसी मानसिक या शारीरिक आवेग से ग्रसित हों तो बच्चे का भोजन कुछ देर के लिए अवॉइड करें। क्योंकि वह बच्चे को नुकसान करेगा।
अपने पुराने संस्कारों के अभाव में मनुष्य जिव्हा के अधीन हो गया है। माता बहनें अपने बच्चों को मैगी, जंक फ़ूड खिला रही हैं, उनसे आप चुस्ती एकाग्रता आदि की कैसे उम्मीद कर सकते हैं। शरीर और मस्तिष्क को दुरुस्त रखना है तो स्वाद के लालच से बचना चाहिए, इस बात को सभी जानते हैं, लेकिन अमल में नहीं लाते।
ताजे फल, सब्जी, दालें आदि मानव के लिए बने हैं। मनुष्य मूलतः एक शाकाहारी प्राणी है। चिकित्सक भी शाकाहार पर जोर देते हैं। इनमें वे सब पोषक तत्व होते हैं जो हमारे शरीर को चाहिए। भोजन में बहुरंगी (multicolor) सब्जियां खाकर हम स्वस्थ रह सकते हैं।
वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि मांसाहार तथा डेयरी उत्पाद से जीवनशैली की ज्यादा गंभीर बीमारी आती है। मांसाहार व्यक्ति की अपेक्षा शाकाहारी व्यक्ति में व्यवहारिक परेशानियाँ कम, स्वभाव शांत एवं सरल होगा। भजन और भोजन हमेशा एकांत में ही करना चाहिए, ये पुरानी मान्यताएं सही हैं। 
__ मनु वाशिष्ठ कोटा जंक्शन राजस्थान

आचरण से शिक्षण, बातों बातों में सिखाएं बच्चों को जीवन जीना

हैलो पैरेंट्स! आचरण से सिखाएं, उम्र को हथियार ना बनाएं __ 
एक पेरेंट होने के नाते जब हमारे घर में बच्चों का आगमन होता है तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहता है। हम अपने बच्चे को अच्छी परवरिश देना चाहते हैं। पर कई बार हम इन बातों को नजरंदाज कर देते हैं कि बच्चों को अच्छे आचरण और शालीन व्यवहार सिखाना भी हमारा फर्ज है। आज का बच्चा कल देश का नागरिक बनेगा।अगर उन्हें अच्छे आचरण के बारे में नहीं बताया गया तो वह समाज में एक अभद्र व्यक्ति और खराब आचरण के साथ बड़ा होगा। इसी कशमकश में पेरेंट्स बच्चों के साथ कुछ ऐसा व्यवहार करने लगते हैं, जिससे बच्चा आदर्श बनने की बजाय कुंठा और निराशा का शिकार हो जाता है। हमें उन बातों को लेकर कुछ सावधानियां बरतनी चाहिए।
भारत में ज्यादातर घरों में जिस तार्किक ढंग से बच्चों का लालन-पालन होता है। यह आर्टिकल उस पर प्रकाश डाल रहा है। एक बात जो ज्यादातर घरों में होती है कि ... ज्यादा प्रश्न मत करो ... बाल धूप में सफेद नहीं किए ... जब तुम्हारी उम्र के थे तो ... अपनी बुद्धि का ज्यादा प्रयोग मत करो ... बुजुर्ग की हर मनमानी को ... आज्ञा मानकर पालन करो। उम्र में बड़े व्यक्ति को अपने ✓आचरण से छोटों के लिए पथ प्रशस्त करना चाहिए ना कि उम्र को [ राजदंड✓] की तरह प्रयोग करना चाहिए। हमने बच्चों के जीवन को अजायबघर बना रखा है।
अच्छी बात है जो आपने भुगता या सहन किया वह बच्चों को नहीं भुगतना पड़ रहा है। आपने छोटी उम्र से जिम्मेदारियां संभाली, आपके अनुभव ज्यादा हैं अच्छी बात है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि आप इनका ताना हमेशा ही बच्चों को देते रहेंगे। आप उनको अनुभव दीजिए, ताने नहीं। ताकि आपके अनुभवों से सीख कर, बच्चों का उन्नति का मार्ग प्रशस्त हो। अन्यथा हर समय सुन सुन कर हो सकता है बच्चे भी कहने लग जाएं, इससे तो अच्छा है हम भी आपके जैसा ही जीवन गुजार देते, कम से कम जीना तो सीख जाते। तब आपको बुरा लग सकता है इसलिए बोलने पर थोड़ा ध्यान दीजिए अपने बुजुर्गियत को हथियार ना बनाएं।
पश्चिमी सभ्यता अपने लिए जीने की बात करती है, भारतीय संस्कृति में हमेशा दूसरों के लिए जीना सिखाया जाता है। मनुष्य जीवन मिलना सौभाग्य की बात है, मृत्यु काल (समय) की बात है, लेकिन मर कर भी लोगों के दिलों में, दिमाग में जीवित रहना, आपके द्वारा किये गए कर्मों की बात है। बच्चों को हमें प्रारम्भ से ही अच्छी बातें, दूसरों की सहायता करना सिखाना चाहिए। सिखाने का सबसे अच्छा तरीका है, आचरण। बच्चे तो कुएं की आवाज हैं। पढ़ना लिखना सिखाया जा सकता है, लेकिन संस्कार आचरण से ही सीखे जाते हैं, कुछ पूर्व जन्म के भी होते हैं। अक्सर आपने झूठ बोलने वाले मातापिता के बच्चों को भी झूठ बोलते देखा होगा, और वह सब उनकी आदत में आजाता है। बच्चे वही सीखेंगे, जो आप करते हैं। कई घरों में बहुओं पर अत्याचार होते देखती हूं, तो बड़ा कष्ट होता है। ऐसे लोगों की भावनाएं मर चुकी होती हैं। उनके बच्चे स्त्रियों की इज्जत करना कहां से सीखेंगे। मुझे बचपन की एक घटना याद आ रही है, हम एक छोटे कस्बे में रहते थे वहां एक कुतिया ने पिल्लों को जन्म दिया। किस तरह मेरी माँ उसके लिए गुड़ का हलवा बना कर दूर से डाल कर आती थीं, क्योंकि ऐसे वक्त पर वह गुर्रा कर काटने को दौड़ती है, उसे डर होता है कोई उसके पिल्लों को हानि ना पहुँचाये। यह क्रम कई दिन चला। कभी रोटी कभी कुछ, और अनजाने ही वह कुतिया हमारे घर की, मुहल्ले की भी सदस्य हो गई। निश्छल प्रेम से ईश्वर की क्या कहें, जानवर भी वश में हो जाते हैं, फिर इंसान कौन बड़ी बात है। इस तरह हमने पहला पाठ तो जीवों पर दया करने का पढ़ा। जो किसी स्कूल में उपदेशों द्वारा नहीं समझाया जा सकता। दूसरा पाठ सीखा, ह्यूमन बीइंग की तरह अपने बच्चों की सुरक्षा व लगाव, तथा ऐसी अवस्था में गुर्राना (चिड़चिड़ापन), व्यवहारिक असुरक्षित महसूस करना। केवल उपदेश देने से बात नहीं बनेगी। संस्कार आचरण से सीख कर ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित हो जाते हैं और पता भी नहीं चलता। बच्चों को ईमानदारी का पाठ भी इसी तरह छोटी उम्र में ही सिखाएं। सही है बच्चा जब गलती करे उसे समझाएं, नहीं माने तो डांटे। लेकिन मातापिता क्या कर रहे हैं, बच्चों की गलतियों पर परदा डाल देते हैं, और यही सबसे बड़ी गलती है। पांच या छः वर्ष तक के बच्चों के अंदर अधिकतर गुण अवगुण सीख चुके होते हैं। इस उम्र में बच्चों का ऑब्जर्वेशन बहुत उच्च होता है। इसलिए उनकी परवरिश में सहयोगी बनें, रुकावट नहीं। 
आजकल मुख्य समस्या बुढ़ापे में बच्चों के व्यवहार को लेकर भी देखने में आरही है। पर इसके लिए केवल बच्चे तो जिम्मेदार नहीं हैं। उन्होंने अपने मातापिता को कभी भी दादा दादी, नाना नानी या घर के किसी अन्य (रिश्तेदार सदस्य) की सेवा या सहायता करते देखा ही नहीं, तो वो क्या जाने। इसलिए बच्चों की परवरिश में बेहद सावधानी बरतें। बच्चों के कान भरने या उनसे आलोचना करने से बचें। स्वामी विवेकानंद ने कहा है ___
"संसार में हमेशा दाता का आसन ग्रहण करो, सर्वस्व दे दो पर बदले में कुछ ना चाहो। प्रेम दो, सहायता दो, सेवा दो। इनमें से जो कुछ भी तुम्हारे पास देने के लिए है वह दे डालो। किन्तु सावधान रहो उनके बदले में कुछ लेने की इच्छा कभी ना रहे। न अधिक वर्षों की आयु होने से, न सफेद बालों से, न अधिक धनवान होने से, ना ही अधिक बन्धुबांधव होने से कोई व्यक्ति बड़ा नहीं होता। हममें से वास्तव में जो ज्ञानी है, परोपकारी है वही महान है। अपनी हार्दिक दानशीलता के कारण ही हम देते चलें, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार ईश्वर हमें देता है।"इसी संदर्भ में एक विचारक का कथन याद आरहा है __ 
पत्थर पत्थर ही होता है, कोई सोना नहीं होता। स्वयं के वास्ते रोना, कोई रोना नहीं होता।। 
__ मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान