सोमवार, 6 मई 2024

स्त्रियां

प्रकृति में समाया परिवार __ 
स्त्रियां! 💃
रोप दी जाती हैं धान सी
उखाड़ दी जाती हैं,
खरपतवार सी
पीपल सी कहीं भी उग आती हैं।
स्त्रियां!💃
जीवन दायी अमृता सी,
महके लंबे समय तक,
रजनीगंधा सी
कभी ना हारें,अपराजिता बन छाई हैं
स्त्रियां!💃
रजनीगन्धा, लिली 
जैसे यौवन ने ली अंगड़ाई है 
सप्तपर्णी के फूल से 
प्रेम माधुर्य की खुशबू आई है।
स्त्रियां!💃
आंसुओं को पी, 
बिखेरती खुशबू पारिजात सी
पुनर्नवा सी, 
ईश्वर की वरदान बन आई है।
स्त्रियां!💃
दिल दिमाग की शांति,  
शंखपुष्पी, ब्राह्मी सी
तुलसी सी पावन
आंगन की शोभा बढ़ाई है।
स्त्रियां!💃
सौम्यता मनभावन
चंपा,चमेली,मोगरा,मालती सी
भरदेती सुखसौभाग्य,अमलतास(स्वर्ण वृक्ष) सी
घर आंगन में मानो,परी उतर आई है।
स्त्रियां!💃

रविवार, 5 मई 2024

बच्चों की कुर्बानी पर संवरते मांओं के कैरियर

अगर किसी को महिला के रूप में जन्म मिला है तो ईश्वर को धन्यवाद करें, कि उन्होंने आपको इस काबिल समझा। महिलाएं सृजनकर्ता हैं,  शायद इसीलिए बच्चे को जन्म देने व परवरिश की जिम्मेदारी आप को सौंपी है, आप महिलाएं दुनिया को बदल सकती हैं। मां बनना हर स्त्री के लिए गर्व की बात है, महिला जब मां बनती है तो यह गर्व दोगुना हो जाता है। उसके चेहरे पर एक आभा दमकती है। सच्ची मां वह होती है जिसकी परवरिश, प्यार दुलार और दिशानिर्देश में बच्चा आगे चलकर एक अच्छा इंसान बनता है। बच्चा मां की कोख के अंदर आकार तो लेता ही है, लेकिन जन्म देने के बाद भी, उसके जीवन को सांचे में ढालने वाली, मां ही होती है। बच्चे आगे चलकर अच्छे इंसान बने इसके लिए महिला का अच्छी इंसान होना बेहद आवश्यक है। उनकी परवरिश पर निर्भर करता है। सिर्फ खाना पीना ही नहीं, बच्चों की अच्छी शिक्षा, परवरिश पर भी ध्यान देना एक मां की प्राथमिकता होनी चाहिए।
आजकल बड़ी ही रोचक बातें देखने में आती हैं, पति पत्नी या लवर्स के आपसी संबोधन ही नहीं  पालतू जानवर भी बाबू और बेबी हो गए, उनके लिए अगाध प्रेम उमड़ रहा है, और जो सच में बाबू या बेबी (बच्चे) हैं उनकी कोई पूछ नहीं, वे आया नैनी के भरोसे छोड़ दिए जाते हैं। कैसी विडम्बना है! जानवरों के लिए प्रेम होना अच्छी बात है, लेकिन फिल्मी स्टाइल में शोशेबाजी करना कितना सही है।
अधिकतर नौकरी पेशा माता-पिता को यह कहते सुना जाता है, आखिर हम यह किसके लिए कर रहे हैं बच्चों के लिए ही तो, लेकिन सच तो यह है कि यह सब वे अपनी स्वयं की संतुष्टि के लिए करते हैं। बच्चे को तो उनका समय, साथ चाहिए होता है जो वह उनको नहीं दे पाते, समय निकलने के पश्चात उस समय का कोई उपयोगिता भी नहीं रह जाती है। कुछ समय पश्चात, बच्चे स्वयं भी आप से दूरी पसंद करने लगते हैं। कहा वर्षा, जब कृषि सुखाने! क्या हम दिल पर हाथ रख कर कह सकते हैं, कि हमने अपना फर्ज अच्छे से निर्वहन किया है। आप एक बार सोच कर देखिए, अगर बच्चे सही दिशा में आगे बढ़ते हैं तो यह पैरेंट्स के लिए ही नहीं पूरे समाज के लिए हितकर है, अन्यथा बड़े बड़े लोगों को एक समय पश्चात, रोते पश्चाताप करते देखा है। और यह ऐसा नहीं कि केवल नौकरीपेशा माताओं की ही बात है, घरेलू महिलाएं भी कहां पीछे हैं, वे भी बच्चों पर ध्यान नहीं दे रही हैं। नौकरी पेशा महिलाओं के छोटे बच्चे अक्सर सुबह के स्कूल में नित्यक्रिया से निवृत होकर भी नहीं जाते, नहाकर नहीं जाते, क्योंकि समय नहीं है। धीरे धीरे बच्चे भी इस दिनचर्या के अभ्यस्त हो जाते हैं। क्या यह उचित है।
कई बार देखने में आता है माता-पिता दोनों ही  जॉब वाले हैं, अपना अपराधबोध (गिल्ट) छुपाने के लिए, बच्चों की अनर्गल फरमाइशें पूरी की जाती हैं। छोटे बच्चे भी ब्लैक मेल करना खूब अच्छी तरह जानते हैं, और अपनी मनचाही मांग पूरी करवाते हैं। घूमना फिरना हो, मनचाहे कॉलेज में एडमिशन लेना हो या और भी कई अन्य बातें। बच्चे कब गलत संगत में पड़ जाते हैं पता ही नहीं लगता। सुविधा के लिए बच्चे के लिए कोई आया रख दी जाती है। क्योंकि आजकल पैरेंट्स को भी घर के बुजुर्ग कई बार बर्दाश्त नहीं होते हैं, और वह अपनी स्वतंत्रता में दखल मान उनको रखने के लिए तैयार नहीं होते हैं। तो कई बार बुजुर्ग भी अपनी जिम्मेदारी निभाने से हिचकिचाते हैं, वह अपनी सेवा की लालसा पाले रहते हैं, ऐसे में उन्हें किसी आया या नैनी को रखना ही उचित लगता है। कई बार पैरेंट्स नौकरी की वजह से बच्चों को समय नहीं दे पाते, समय बचाने के चक्कर में बच्चों को जो मर्जी करने देते हैं, टीवी, मोबाइल या कोई गेम और इस प्रकार वह बच्चों को जो सिखाना चाहते हैं, नहीं सिखा पाते। नैनी, आया कुछ और सिखाती है, गाली गलौज भी सीख जाते हैं, और इस तरह बच्चा कंफ्यूज हो कर कुछ भी नहीं सीख पाता कि आखिर मुझे करना क्या है, वह जो कहना चाहता है कह नहीं पाता। और इस तरह से पूरी जिंदगी के लिए उसके अंदर आत्मविश्वास की कमी हो जाती है। बेहतर होगा हम अपने कैरियर पर अपने बच्चों की जिंदगी या कुर्बान ना करें। क्या फायदा आपकी शिक्षा का। 
कई बार देखने में आता है माता-पिता अपने कैरियर के परवाह करते हुए बच्चों की पढ़ाई में पिछड़ जाने पर भी ध्यान नहीं देते, शुरू में सोचते हैं एक-दो साल विलंब हो जाए तो कोई बात नहीं, धीरे-धीरे यह उनके आदत में आ जाता है। और बच्चे भी बस सामान्य पढ़ते हुए रह जाते हैं, उम्र निकलने के बाद सिवाय पछतावे के कुछ हाथ नहीं लगता। काश! माता-पिता इस चीज पर गौर करें, तुम अपनी जिंदगी जी चुके हो, बच्चों की तरक्की देखकर खुश होना सीखिए। जब आपके बच्चे तरक्की करेंगे, आगे बढ़ेंगे, उस खुशी का किसी चीज से, किसी कैरियर से कोई मुकाबला नहीं है।
फिर भी यदि अभिभावक दोनों ही जॉब करते हैं, तो बच्चों को कुछ बातें समझानी चाहिए ताकि अनजान व्यक्ति को यह पता ना चले कि वह घर में अकेला है। और उसे कुछ आपातकालीन सहायता वाले फोन नंबर, अपने ऑफिस के फोन नंबर किसी खास व्यक्ति या संबंधी का फोन नंबर भी अवश्य लिखवाएं। बच्चा आपकी तरफ से आश्वस्त होना चाहिए कि आपने उसके हर स्थिति से बचाव की व्यवस्था कर रखी है तो इस तरह से बच्चा डरेगा नहीं। उसे हर परिस्थिति से निपटना सिखाएं, पड़ोसियों से भी अच्छे संबंध रखें। इस तरह कामकाजी होते हुए भी आप बच्चों पर ध्यान रख सकती हैं।
एकल परिवारों में रहते हुए बच्चों का कितना भावनात्मक, सामाजिक शोषण हो रहा है, यह अभी किसी की समझ में नहीं आ रहा है। जिसका दुष्प्रभाव कुछ समय बाद देखने को मिलेगा। जो बच्चे अपने परिवार में बड़ों, छोटों के साथ में रहते हैं, उनका सामाजिक व्यवहार और समझ अच्छी होती है। कई चीजें जो हम केवल डांट कर नहीं सुधार सकते उसे हम परिवार में रहते हुए बड़े बुजुर्गों के सहारे से अच्छी तरह से समझा सकते हैं।
जब बच्चे अपने दादी, नानी से अपनी भाषा में बात करते हैं, किस्से कहानी सुनते हैं, तो उन्हें अपनी भाषा के साथ संस्कृति के बारे में पता चलता है। कहानी सुनने से वे अपनी विरासत, संस्कारों को बचा पाते हैं। बच्चों में भाषा के प्रति जिज्ञासा और जागरूकता दोनों बढ़ती है। दादी नानी, बुजुर्गों से बात करते हुए, बच्चों की शब्दावली बढ़ती है, उनकी कुछ समझ में नहीं आता तो वह पूछते हैं इसका मतलब क्या है। इस प्रकार वे नए नए शब्द सीखते हैं। और जरूरत पड़ने पर उसका इस्तेमाल करते हैं। आजकल बच्चों को लोकाचार की भाषा, लोकोक्तियां और मुहावरों का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं है, क्योंकि यह उनके सुनने में ही नहीं आता है। जबकि पहले परिवारों में रहते हुए यह सारी बातें, बच्चे स्वतः ही ऐसे शब्दों और मुहावरों को आत्मसात करने लगते थे, इस तरह उनमें सुनने समझने का कौशल विकसित होता है। दिल पर हाथ रख कर सोचें, क्या आप ने बच्चों के साथ अपना फर्ज़ अच्छी तरह निभाया है। जब हमने अपना फर्ज अच्छे से निर्वहन नहीं किया है, तो बच्चों से भी उम्मीद ना रखें। वैसे उम्मीद तो किसी से भी नहीं रखनी चाहिए। आज दोनों पीढ़ियां एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही हैं। कैरियर बनाना अच्छी बात है, लेकिन बच्चों की कुर्बानी पर नहीं।
आप ने बच्चों को आया के भरोसे रखा, और बच्चों ने आप को वृद्धाश्रम के भरोसे, तो क्या गलत है।
आप मेरी बात से कितने सहमत हैं, एक बार सोचिएगा अवश्य।

बुधवार, 21 फ़रवरी 2024

भोजन पर विचारों का प्रभाव

हैलो पैरेंट्स! भोजन पर विचारों का प्रभाव ___
श्रद्धा और एकाग्रता से किया गया भोजन सदा बल और पराक्रम प्रदान करता है। क्रोध, विवाद, बेईमानी से कमाए धन, रोग शोक विचारों से ग्रस्त, अपमानपूर्वक तथा अश्रद्धा से तैयार किया गया  भोजन बल और पराक्रम दोनों को नष्ट कर देता है। इसलिए भोजन सदैव अच्छे आचार विचार, सही तरीके से कमाए धन से ही करना चाहिए। एक प्रसंग याद आ रहा है आप सब ने भी पढ़ा होगा। महाभारत में युद्ध समाप्ति के पश्चात पितामह भीष्म मृत्यु के इंतजार में सूर्य के उत्तरायण की प्रतीक्षा करते हुए शरशैया पर लेटे हुए थे। एक दिन पांचो पांडव द्रौपदी के साथ उनसे मिलने पहुंचे। भीष्म पितामह उनको धर्म, ज्ञान उपदेश की बातें बता रहे थे कि द्रौपदी खिलखिला कर हंस पड़ी। द्रौपदी एक विदुषी महिला थी, उनसे ऐसे व्यवहार की उम्मीद किसी को ना थी। उनके इस व्यवहार पर पांडव ही नहीं पितामह भी आश्चर्यचकित थे, उन्होंने द्रौपदी से इसका कारण जानना चाहा। द्रौपदी ने जवाब दिया_ आदरणीय पितामह! आज आप अन्याय के विरुद्ध लड़ने और धर्म उपदेश दे रहे हैं, लेकिन जब भरी सभा में मेरा चीरहरण कर अपमानित किया जा रहा था तब आप कहां थे? तब यह उपदेश धर्म ज्ञान कहां था? द्रौपदी की यह बातें सुनकर पितामह का आंखों में आंसू छलक पड़े, गला रूंध गया, कातर स्वर में बोले पुत्री! मुझे क्षमा करना ... तुम जानती हो उस समय में दुर्योधन का अन्य खा रहा था ... ऐसा अन्य खाने से मेरे संस्कार दूषित हो गए थे... मैं अन्याय का विरोध नहीं कर सका। लेकिन अब उस अन्न से निर्मित रक्त शरशैया के नुकीले बाणों पर लेटे हुए बह चुका है। मुझे फिर से अपने संस्कारों का बोध हो चुका है। यह सच है जैसा हम अन्न खाते हैं मन भी वैसा ही हो जाता है। इसीलिए हमेशा ही सही तरीके से कमाए हुए धन से ही भोजन करना चाहिए। आपने सबने एक कहानी और सुनी होगी किस तरह से एक संत एक चोर के यहां भोजन करके, उस चोर का घोड़ा ही चुरा ले गए थे। लेकिन बाद में दूसरी जगह जाने पर उन्हें इस चीज का बोध हुआ तो वह वापस उस चोर के यहां पर उस घोड़े को छोड़ उससे पूछने लगे कि तुम क्या काम करते हो तब उसने बताया कि मैं चोरी करता हूं इस तरह उन्हें महसूस हुआ कि एक चोर का खाना खाने से उनकी बुद्धि भी चोर जैसी ही हो गई थी। इसलिए सही है हमेशा खाने पीने में ईमानदारी, सच्चाई का अवश्य ध्यान रखें, नहीं तो दुर्बुद्धि आते देर नहीं लगती। इसीलिए हमेशा खाना पकाने वाला उत्तम, शुद्ध विचारों वाला होना चाहिए, ताकि उसका प्रभाव आपके खाने पर आपकी बुद्धि पर ना पड़े।
आयुर्वेद में कहा गया है _ जैसा खाए अन्न, वैसा हो जाए मन। एक और बात जो अन्न जहां पैदा होता हो, ऋतु अनुसार हो तथा वहीं के लोगों द्वारा उपयोग में लाया जाय तो वह औषधि के समान होता है, साथ ही सात्विकता से अर्जित तथा श्रद्धा, प्रेम पूर्वक पकाया गया हो तो उसका महत्व और बढ़ जाता है। खाने पर अच्छे आचार विचार का बहुत ही सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कई बार बुजुर्गों से कहते सुना होगा कि, अगर थकान परिश्रम से चूर हो कर आए हों, किसी मानसिक या शारीरिक आवेग से ग्रसित हों तो बच्चे का भोजन कुछ देर के लिए अवॉइड करें। क्योंकि वह बच्चे को नुकसान करेगा।
अपने पुराने संस्कारों के अभाव में मनुष्य जिव्हा के अधीन हो गया है। माता बहनें अपने बच्चों को मैगी, जंक फ़ूड खिला रही हैं, उनसे आप चुस्ती एकाग्रता आदि की कैसे उम्मीद कर सकते हैं। शरीर और मस्तिष्क को दुरुस्त रखना है तो स्वाद के लालच से बचना चाहिए, इस बात को सभी जानते हैं, लेकिन अमल में नहीं लाते।
ताजे फल, सब्जी, दालें आदि मानव के लिए बने हैं। मनुष्य मूलतः एक शाकाहारी प्राणी है। चिकित्सक भी शाकाहार पर जोर देते हैं। इनमें वे सब पोषक तत्व होते हैं जो हमारे शरीर को चाहिए। भोजन में बहुरंगी (multicolor) सब्जियां खाकर हम स्वस्थ रह सकते हैं।
वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि मांसाहार तथा डेयरी उत्पाद से जीवनशैली की ज्यादा गंभीर बीमारी आती है। मांसाहार व्यक्ति की अपेक्षा शाकाहारी व्यक्ति में व्यवहारिक परेशानियाँ कम, स्वभाव शांत एवं सरल होगा। भजन और भोजन हमेशा एकांत में ही करना चाहिए, ये पुरानी मान्यताएं सही हैं। 
__ मनु वाशिष्ठ कोटा जंक्शन राजस्थान

आचरण से शिक्षण, बातों बातों में सिखाएं बच्चों को जीवन जीना

हैलो पैरेंट्स! आचरण से सिखाएं, उम्र को हथियार ना बनाएं __ 
एक पेरेंट होने के नाते जब हमारे घर में बच्चों का आगमन होता है तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहता है। हम अपने बच्चे को अच्छी परवरिश देना चाहते हैं। पर कई बार हम इन बातों को नजरंदाज कर देते हैं कि बच्चों को अच्छे आचरण और शालीन व्यवहार सिखाना भी हमारा फर्ज है। आज का बच्चा कल देश का नागरिक बनेगा।अगर उन्हें अच्छे आचरण के बारे में नहीं बताया गया तो वह समाज में एक अभद्र व्यक्ति और खराब आचरण के साथ बड़ा होगा। इसी कशमकश में पेरेंट्स बच्चों के साथ कुछ ऐसा व्यवहार करने लगते हैं, जिससे बच्चा आदर्श बनने की बजाय कुंठा और निराशा का शिकार हो जाता है। हमें उन बातों को लेकर कुछ सावधानियां बरतनी चाहिए।
भारत में ज्यादातर घरों में जिस तार्किक ढंग से बच्चों का लालन-पालन होता है। यह आर्टिकल उस पर प्रकाश डाल रहा है। एक बात जो ज्यादातर घरों में होती है कि ... ज्यादा प्रश्न मत करो ... बाल धूप में सफेद नहीं किए ... जब तुम्हारी उम्र के थे तो ... अपनी बुद्धि का ज्यादा प्रयोग मत करो ... बुजुर्ग की हर मनमानी को ... आज्ञा मानकर पालन करो। उम्र में बड़े व्यक्ति को अपने ✓आचरण से छोटों के लिए पथ प्रशस्त करना चाहिए ना कि उम्र को [ राजदंड✓] की तरह प्रयोग करना चाहिए। हमने बच्चों के जीवन को अजायबघर बना रखा है।
अच्छी बात है जो आपने भुगता या सहन किया वह बच्चों को नहीं भुगतना पड़ रहा है। आपने छोटी उम्र से जिम्मेदारियां संभाली, आपके अनुभव ज्यादा हैं अच्छी बात है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि आप इनका ताना हमेशा ही बच्चों को देते रहेंगे। आप उनको अनुभव दीजिए, ताने नहीं। ताकि आपके अनुभवों से सीख कर, बच्चों का उन्नति का मार्ग प्रशस्त हो। अन्यथा हर समय सुन सुन कर हो सकता है बच्चे भी कहने लग जाएं, इससे तो अच्छा है हम भी आपके जैसा ही जीवन गुजार देते, कम से कम जीना तो सीख जाते। तब आपको बुरा लग सकता है इसलिए बोलने पर थोड़ा ध्यान दीजिए अपने बुजुर्गियत को हथियार ना बनाएं।
पश्चिमी सभ्यता अपने लिए जीने की बात करती है, भारतीय संस्कृति में हमेशा दूसरों के लिए जीना सिखाया जाता है। मनुष्य जीवन मिलना सौभाग्य की बात है, मृत्यु काल (समय) की बात है, लेकिन मर कर भी लोगों के दिलों में, दिमाग में जीवित रहना, आपके द्वारा किये गए कर्मों की बात है। बच्चों को हमें प्रारम्भ से ही अच्छी बातें, दूसरों की सहायता करना सिखाना चाहिए। सिखाने का सबसे अच्छा तरीका है, आचरण। बच्चे तो कुएं की आवाज हैं। पढ़ना लिखना सिखाया जा सकता है, लेकिन संस्कार आचरण से ही सीखे जाते हैं, कुछ पूर्व जन्म के भी होते हैं। अक्सर आपने झूठ बोलने वाले मातापिता के बच्चों को भी झूठ बोलते देखा होगा, और वह सब उनकी आदत में आजाता है। बच्चे वही सीखेंगे, जो आप करते हैं। कई घरों में बहुओं पर अत्याचार होते देखती हूं, तो बड़ा कष्ट होता है। ऐसे लोगों की भावनाएं मर चुकी होती हैं। उनके बच्चे स्त्रियों की इज्जत करना कहां से सीखेंगे। मुझे बचपन की एक घटना याद आ रही है, हम एक छोटे कस्बे में रहते थे वहां एक कुतिया ने पिल्लों को जन्म दिया। किस तरह मेरी माँ उसके लिए गुड़ का हलवा बना कर दूर से डाल कर आती थीं, क्योंकि ऐसे वक्त पर वह गुर्रा कर काटने को दौड़ती है, उसे डर होता है कोई उसके पिल्लों को हानि ना पहुँचाये। यह क्रम कई दिन चला। कभी रोटी कभी कुछ, और अनजाने ही वह कुतिया हमारे घर की, मुहल्ले की भी सदस्य हो गई। निश्छल प्रेम से ईश्वर की क्या कहें, जानवर भी वश में हो जाते हैं, फिर इंसान कौन बड़ी बात है। इस तरह हमने पहला पाठ तो जीवों पर दया करने का पढ़ा। जो किसी स्कूल में उपदेशों द्वारा नहीं समझाया जा सकता। दूसरा पाठ सीखा, ह्यूमन बीइंग की तरह अपने बच्चों की सुरक्षा व लगाव, तथा ऐसी अवस्था में गुर्राना (चिड़चिड़ापन), व्यवहारिक असुरक्षित महसूस करना। केवल उपदेश देने से बात नहीं बनेगी। संस्कार आचरण से सीख कर ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित हो जाते हैं और पता भी नहीं चलता। बच्चों को ईमानदारी का पाठ भी इसी तरह छोटी उम्र में ही सिखाएं। सही है बच्चा जब गलती करे उसे समझाएं, नहीं माने तो डांटे। लेकिन मातापिता क्या कर रहे हैं, बच्चों की गलतियों पर परदा डाल देते हैं, और यही सबसे बड़ी गलती है। पांच या छः वर्ष तक के बच्चों के अंदर अधिकतर गुण अवगुण सीख चुके होते हैं। इस उम्र में बच्चों का ऑब्जर्वेशन बहुत उच्च होता है। इसलिए उनकी परवरिश में सहयोगी बनें, रुकावट नहीं। 
आजकल मुख्य समस्या बुढ़ापे में बच्चों के व्यवहार को लेकर भी देखने में आरही है। पर इसके लिए केवल बच्चे तो जिम्मेदार नहीं हैं। उन्होंने अपने मातापिता को कभी भी दादा दादी, नाना नानी या घर के किसी अन्य (रिश्तेदार सदस्य) की सेवा या सहायता करते देखा ही नहीं, तो वो क्या जाने। इसलिए बच्चों की परवरिश में बेहद सावधानी बरतें। बच्चों के कान भरने या उनसे आलोचना करने से बचें। स्वामी विवेकानंद ने कहा है ___
"संसार में हमेशा दाता का आसन ग्रहण करो, सर्वस्व दे दो पर बदले में कुछ ना चाहो। प्रेम दो, सहायता दो, सेवा दो। इनमें से जो कुछ भी तुम्हारे पास देने के लिए है वह दे डालो। किन्तु सावधान रहो उनके बदले में कुछ लेने की इच्छा कभी ना रहे। न अधिक वर्षों की आयु होने से, न सफेद बालों से, न अधिक धनवान होने से, ना ही अधिक बन्धुबांधव होने से कोई व्यक्ति बड़ा नहीं होता। हममें से वास्तव में जो ज्ञानी है, परोपकारी है वही महान है। अपनी हार्दिक दानशीलता के कारण ही हम देते चलें, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार ईश्वर हमें देता है।"इसी संदर्भ में एक विचारक का कथन याद आरहा है __ 
पत्थर पत्थर ही होता है, कोई सोना नहीं होता। स्वयं के वास्ते रोना, कोई रोना नहीं होता।। 
__ मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान