गुरुवार, 30 जनवरी 2020

तीस जनवरी, बसंत पंचमी


✍️🇭🇺🙏🇭🇺🙏🇭🇺🙏
चरखा चलाने वाले के देश में
राजनेता इतने बौरा गए
निज स्वार्थ और, कुर्सी की खातिर
देश को ही चारा समझ
चर कर खा गए
निज स्वार्थ और.........
मधुमास ऋतु ,
उमंग,उल्लास बहे रसधार की,
इतनी नफरत पल रही दिलों में,
कैसे कहें हम 
कि बसंत तुम आ गए!!
निज स्वार्थ और.........
आज बसंतपंचमी, शहीद दिवस
गांधी को याद करूं या
पूजन करूं मां शारदे का
विचारों की लड़ाई में
हम अपनी संस्कृति ही भुला गए
निज स्वार्थ और .........
खिले फूल सरसों के
कोयल कूक रही आमों पर
सियासत की आंधी कुछ
इस तरह चली कि
बौर आने से पहले ही फूल मुरझा गए
निज स्वार्थ और .........

मंगलवार, 28 जनवरी 2020


✍️#बसंत ऋतु और खानपान---

#बसंत अपने आप नहीं आता, उसे लाना पड़ता है। सहज आने वाला तो #पतझड़ होता है,बसंत नहीं।                                         _हरिशंकर परसाई
इसलिए निरंतर अभ्यास करते रहिए, आगे बढ़ते रहिये। #मेहनत करने वालों की ही, सफलता कदम चूमती है। #बसंत ऋतु शीतऋतु एवं ग्रीष्मऋतु के बीच का #संधिकाल होता है, इसलिए ना अधिक गर्मी होती है और ना ही अधिक ठंड। सुहाने मौसम के कारण ही इसे ऋतुराज बसंत की उपमा दी गई है। जब भी ऋतु बदलती है, तो एकदम से नहीं बदलती। हां! मौसम में कभी-कभी एकदम से बदलाव आता है जो चला भी जाता है, जोकि होता भी अपेक्षाकृत कम समय के लिए ही है। किसी ने बसंत से पूछा अब तक कहां थे तो जैसे बसंत ने जवाब दिया हो, इतनी शीत में जम ना जाऊं, इसलिए प्रकृति की सीप में सुरक्षित था, पर सही समय पर बाहर आने की तैयारी कर रहा था। हम भी कुछ वैसे ही ठिठुरन से बाहर आ रहे हैं। ठिठुरन, गलन जैसे जीवन अवरुद्ध कर देती हैं, बसंत इस जकड़न से बाहर निकलने का नाम है। शरीर और मन दोनों में नई ऊर्जा भरने का नाम है, जिंदगी में फिर से रवानगी आने का नाम है बसंत। जीवन में उमंग, ऊर्जा, आस, उल्लास, उत्साह, प्रकृति का खिलना यह सब वसंत ही तो है। हमारे मन पर और शरीर पर इसका बहुत ही सकारात्मक प्रभाव है। जीवन का दूसरा नाम है बसंत। बसंत, जमा देनेेेे वाली ठंड से बाहर निकलने, निकलकर खेलने, प्रातः भ्रमण कर स्वास्थ्य लाभ की ऋतु है। ठंड के मौसम में पानी में हाथ डालने, पीने तक से बचते थे वहीं बसंत आने के बाद, पानी भी कुछ अच्छा और थोड़ा सहज लगने लगता है। बसंती रंग हर्ष उल्लास और जोश का प्रतीक है, तभी तो यह गाना भी बना है_
मां ए रंग दे बसंती चोला...
जिसे पहन निकले हम मस्ती का टोला.....
मां ए रंग दे बसंती चोला.....
जिस चोले को पहन शिवाजी खेले अपनी जान पर
उस चोले को पहनकर निकले हम मस्ती का टोला...
मां ए रंग दे बसंती चोला.....
बसंत केवल मनुष्य के लिए, अच्छे बुरों के लिए ही नहीं, समस्त प्रकृति के लिए है। बसंत में एक मस्ती है, उल्लास है, आनंद है, इसीलिए सेहत ही नहीं #रोग (बीमारी) भी प्रसन्न हो उठते हैं। अनेकों संक्रामक बीमारियां बसंत में ही अधिक देखने को मिलती हैं, इसलिए स्वास्थ्य बन सकता है तो बिगड़ भी सकता है। सर्दी और गर्मी के बीच का समय सब को अच्छा लगता है बीमार को भी और स्वस्थ व्यक्ति को भी। इसलिए थोड़ा संभल कर चलिए। माना कि यह बौराने (मदमस्त होने, बौर आने की, पेड़ों पर नए अंकुरण) की ऋतु है, फिर थोड़ा भी संभल कर चलिए। पीला रंग उल्लास, शुभता का प्रतीक रहा है। जनेऊ को पीले रंग में रंग कर पहनना हो या विवाह के समस्त कार्यक्रम, सभी इसी रंग में शुभ माने जाते हैं। पीले चावल बांटने से लेकर हाथों में ही नहीं पूरी देह में हल्दी लगाने तक, हल्दी जो कि बहुत अच्छी एंटीबायोटिक है।
इसलिए बसंत में शरीर को स्वस्थ रखने के लिए अपनी दिनचर्या और आहार पर भी ध्यान देना आवश्यक है। बसन्त ऋतु में गरिष्ठ भोजन करने से बचना चाहिए। इस मौसम में सर्दी के बाद धूप तेज होने लगती है, सूर्य की तेजी से शरीर में संचित #कफ पिघलने लगता है। जिससे #वात, #पित्त, #कफ का सन्तुलन बिगड़ जाता है, तथा #सर्दी, खांसी जुकाम, उल्टी दस्त आदि स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं की सम्भावना बढ़ जाती है। बसंत ऋतु में मौसम में बदलाव होता रहता है स्थिरता नहीं रहती, अतः इस मौसम में #आहार सम्बंधी सावधानी अत्यंत आवश्यक है। #गरिष्ठ, खट्टे, चिकने, अधिक मीठा व बासी भोजन ना करें, सादा हल्का सुपाच्य भोजन लें।भोजन में #काली #मिर्च, #अदरक, #तुलसी, #लौंग, #हल्दी (सब्जी या किसी भी रूप में) #मैथी आदि पदार्थों का सेवन करें। शरीर में वात, पित्त, कफ की समस्या को नियंत्रित करते हैं। बसंत ऋतु में प्रातः बड़ी हरड़ व पिपली का चूर्ण पानी या शहद के साथ लेना भी हितकर है, तथा उत्तम #औषधि स्वरूप ही है। प्रतिदिन आहार में शुद्ध घी, मक्खन, मेवे, खजूर, शहद, सोते समय दूध, गुड़ चना, मूंगफली, तिल के व्यंजन आदि के सेवन से शरीर पुष्ट एवं सशक्त होता है। क्योंकि रातें अभी भी लंबी ही होती हैं, जिससे आराम का अच्छा समय मिलता है तथा पाचन शक्ति भी अच्छी रहती है।  फलों में अमरुद, संतरा, आंवला, नींबू, बेर जैसे फलों का सेवन अवश्य करें। क्योंकि ये #विटामिनC से भरपूर होते हैं,जो #पाचनक्रिया ठीक कर कब्ज की समस्या को दूर करते हैं। इस ऋतु में तिल या सरसों के तेल की मालिश कर के नहाना बहुत अच्छा है। शारीरिक  व्यायाम अवश्य करें। इन दिनों गले में दर्द, खांसी जुकाम, खराश होना आम बात है, इसलिए प्रतिदिन  रात को सोते समय गर्म पानी में नमक तथा फिटकरी मिलाकर गरारे अवश्य कर लेना चाहिए। इससे गले की कोई परेशानी नहीं होती है। अगर कुछ परेशानी हो भी जाए तो तुलसी, कालीमिर्च, लौंग, अदरक आदि का काढ़ा बनाकर, सेंधा नमक या शहद मिलाकर पिएं। बहुत ही कारगर उपाय है।  इस मौसम में दिन में सोना देर रात तक जागना भी ठीक नहीं है।
#संत और #बसंत में एक ही समानता है,
जब #बसंत आता है तो, #प्रकृति सुधर जाती है।
और जब #संत आते हैं तो, #संस्कृति सुधर जाती है। जैसे प्रकृति में बसंत है, वैसे ही इंसान के जीवन में भी होता है, बस प्रकृति के बसंत की तरह सबके सामने, प्रत्यक्ष रूप से बाहर लाने की जरूरत है। असल में प्रकृति का बसंत हमें याद दिलाता है, कि अपने जीवन में भी नएपन को महत्व देना है। जीवन में इसी बसंत को लाने की जरूरत है फिर देखिए कैसा बसंती रंग में खिल उठता है, आपका जीवन।

बुधवार, 11 दिसंबर 2019

अभिव्यक्ति की कमी और मानसिक रोग


✍️अभिव्यक्ति की कमी और मानसिक रोग__ 
सही मायने में, आजकल समाज में अभिव्यक्ति के लिए स्थान ही नहीं है, इसलिए शायद मानसिक बीमारियों के ग्राफ में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। मानसिक बीमारियों का मुख्य कारण है, अभिव्यक्ति की कमी। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर दिखावा या #उद्दंडता है, वह भी सही बात नहीं है। अभिव्यक्ति, बच्चों जैसी निश्छल होनी चाहिए। दुनिया में ज्यादातर लोगों को अपनी भावनाएं प्रदर्शित करने का मौका ही नहीं मिलता। उन्हें प्यार, दुख, खुशी से भी डर लगता है। जोर से हंसना नहीं, मन करे तो बेचारे रो भी नहीं सकते, सभ्यता के #विरुद्ध जो है। रोना भी एक समस्या जैसा ही है, बच्चा भी अगर जोर से रोए तो डांट कर चुप करा दिया जाता है, घर में कुछ भी परेशानी हो जाए तो गुपचुप गुपचुप शांत करा दिया जाता है, लोगों से छुपाया जाता है, और इस तरह एक घुटन सी हो जाती है। पति पत्नी को भी अपनी भावनाएं व्यक्त करने में, अच्छा खासा समय गुजर जाता है, फिर भी अपनी मन की बात कहने में संकोच करते हैं। यह बड़ी दुविधा है, अगर कोई बेटी ससुराल में सामंजस्य नहीं कर पाती है, तो उसके मायके वाले भी उसको बात कहने से रोकते हैं, और इस तरह वह अंदर ही अंदर घुट कर मानसिक रोगों की शिकार हो सकती है। दुख हो या सुख शेयर करने में क्या जाता है, अभिव्यक्ति से जहां सुख बढ़ता है, वहीं दुख घटता है इसलिए अभिव्यक्त तो करना ही चाहिए। आजकल जो इतनी आत्महत्याओं की घटनाएं बढ़ रही हैं, उसमें भी कहीं ना कहीं भावनाओं की शेयरिंग का अभाव कह सकते हैं, यह सब आधुनिक संस्कृति की देन है। अगर आपकी भावनाओं को पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं मिलती है, तो यह अंदर जाकर आपका बहुत नुकसान कर सकती हैं। अभिव्यक्ति की आजादी, एक बहस का विषय बना हुआ है, जिसको सब अपने मनमाने ढंग से प्रयोग करना चाहते हैं।अभिव्यक्ति का अर्थ किसी को भी हर्ट करना नहीं, दूसरों की भावनाओं की भी कद्र करनी होगी। अश्लीलता को अभिव्यक्ति की आजादी तो नहीं कह सकते हैं ना! कोई अभिव्यक्ति के नाम पर स्वछंद हो दूसरों को गाली दे, तो कोई देश विरोधी आंदोलन छेड़ संतुष्टि चाहता है। इसका दुरुपयोग अधिक हो गया है। लेकिन फिर भी मर्यादाओं का सम्मान करते हुए, अभिव्यक्ति अवश्य करना चाहिए।

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

दीवारें बोल उठेंगी

✍️
#दीवारें बोल उठेंगी!!
ऐसा भी कहीं होता है??? कुछ भी, विज्ञापन दिखा देते हैं। फिर सोचा एक बार ट्राई करने में क्या जाता है, मैंने दीवार की तरफ मुंह किया और पूछा क्या तुम बोलना जानती हो? उधर से आवाज आई, क्या आप सुनना पसंद करोगे?? अरे वाह! यह तो चमत्कार हो गया। मैंने तो सुना था दीवारों के कान होते हैं, लेकिन इसकी तो जुबां भी है.... पहले तो घबरा गई, फिर मैंने कहा चलो आज मैं सुनने के मूड में हूं, बताओ..... मुझे सुन नहीं पाओगे, मेरे पास इतनी राज छुपे हुए हैं, मेरे यानि, दीवार की परत दर परत के नीचे, आंखों के सामने ना जाने क्या क्या घटित हुआ है। सब सोचते हैं यह बेजान दीवार कुछ नहीं समझती, कुछ नहीं जानती लेकिन मैंने बहुत कुछ देखा है। यह विज्ञापन ऐसे ही नहीं बना। यह वास्तविकता है, बस आज तक मुझे (दीवार) को किसी ने आजमाया नहीं, आज तुमने पूछा तो मैं बोल रही हूं। मैं हूं तुम्हारी प्यारी सहेली, दीवार!!! खुशी और गम की राजदार। अब मैंने भी सोचा, आज से मैं तुम से ही सारी मन की बातें किया करूंगी। गांव जाना हुआ, तो वहां हमारे घर की पुश्तैनी हवेली की दीवारों ने बताया, कि जब तुम छोटी थी तो तुम्हारा अपनी मां की गोद में रथ,  मंझोली से आना,सबका दुलार पाना, कितनी बातें करती थी, और मैं यानी दीवार चुपचाप सुना करती थी। तुम्हारी सारी शैतानियों की गवाह हूं। लेकिन आज मैं दीवारों की बातों को महसूस कर रही हूं, है ना ताज्जुब! अब वह हवेली खंडहर हो चुकी है, फिर भी दीवारें बहुत कुछ बोल रही हैं।अंग्रेजों के समय और बाद में भी, दादाजी मुक़दम जमींदार थे, नौकर चाकरौं की भीड़ हुआ करती थी। इन दीवारों से मिलिए, जहां तुम (मैं) शादी हो कर आई थी, सब बहन भाइयों के साथ समय व्यतीत किया था, फिर बच्चे!! हे प्रभु! कितनी यादों की गवाह हूं मैं दीवार!!!! हर कमरे की दीवारों की अपनी अलग कहानी। पोर्च की दीवारें आज भी गवाह हैं, गाड़ी की नहीं, गाय की, जहां गाय बंधा करती थी। तब यहां बहुत रौनक थी जो आज बिल्कुल अनमनी, उदास हैं।कभी ये कोठी की दीवारें, पिताजी के ठहाकों व मित्र मंडली से गुलजार थी। दीवारें हंसना नहीं जानती, फिर भी कभी चहकती हुई, तो कभी उदास दिख जाती हैं। मनुष्य हंसना जानता है, फिर भी चेहरे पर मुखौटे लगाए रहता है। अब एक और दीवार से मिलिए, यह मेरी बहू के, मेरे पोती के, कुंवरसा के, नए रिश्तों के, नई पीढ़ी के आगमन के  स्वागत के लिए तैयार खड़ी है, देखो कितना कुछ कह रही है। हर दीवार अपने आप में एक इतिहास समेटे हुए है, कभी फुर्सत में फिर और ढेरों बातें करेंगे। बहुत कुछ कहना चाहती है मेरे घर की दीवारें। सब हम दीवारों को पत्थर दिल समझते हैं, पर ऐसा नहीं है दीवारों को भी महसूस होता है। वो साक्षी है आपकी हर कहानी की। कभी महसूस कीजिए, और आपके मुंह से अनायास ही निकल पड़ेगा, दीवारें बोल उठेंगी!!!!

गुरुवार, 14 नवंबर 2019

एक था बचपन


✍️
एक था #बचपन??
शामें तो बचपन में हुआ करती थी!!
एक #अरसा हुआ,अब वो शाम नहीं होती।
जिसका #इंतजार रहता था, खेलने के लिए। 
फिर थोड़ा और बड़े हुए!!     
शाम का #इंतजार होता था,
दोस्तों को अपने #सपने सुनाने के लिए!!
कितना याद आता है ना!
एसा क्या हो जो,
हमें #खिलखिला कर हंसने पर
#मजबूर कर दे गुदगुदा दे।
कितने याद आते हैं,
वो सब जो कहीं पीछे छूट गया है।
आओ एक गहरी लंबी सांस लें,
और पहुंच जाएं,
बचपन की उन #गलियों में।
उस उल्लास में, #बेखौफ
फिर से जीवन जीने का अंदाज़ सीखना।
हर बार
नया खेल,नई #ऊर्जा, नई #सीख, नये सपने।                        
बचपन की ही तरह #बातें पकड़ना नहीं,
बस #माफ करना।
एक अंगूठे से #कट्टा, लड़ाई,
और दो अंगुलियों से
मुंह पर विक्ट्री का निशान,
एक #पुच्चा से वापिस दोस्ती।
वो छोटी, छोटी चीजों  में #अपार पूंजी,
अमीरी का #अहसास।
अपने बैग में छुपा कर रखना उस पूंजी को,
रंगीन कंचे,चित्रों की कटिंग,
बजरी में से ढूंढ़ के लाए
पत्थर के टुकड़े, सीप,शंख, घोंघे के खोल।
खट्टी मीठी गोलियां, छुप कर कैरी का खाना,
और ना जाने क्या क्या।
क्या याद है, आपको?
झाड़ू की सींक में
हाथ से बनाया झण्डा लेकर
देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत, 
स्कूल जाना।
कभी कभी
जेबखर्च के बचे पैसे भी होते थे।
वाकई #बहुत #अमीर था #बचपन।
न जाने कहां गुम गई वो अमीरी ?
#चलो एक बार फिर से
#कोशिश तो कर ही सकते हैं,
उस बचपन में लौटने की!
आज अपने किसी #पुराने दोस्त से मिलते हैं,
#बिना किसी #शिकवे शिकायत के!
#मन के #दरवाजे #खोलने हैं,
सारे मुखौटे घर पर छोड़ कर।
#बारिश में भीगकर आते हैं,
डांट पड़ेगी तो, #कोईबात नहीं।
किसी तितली को,
पकड़ने के लिए दौड़ लगाते हैं।
किसी छोटे पपी को घर लाकर नहलाते हैं,
फिर उसी के साथ सो जाते हैं।
चलो आज बचपन की,
यादों की गलियों में #चक्कर लगा कर आते हैं।
और #इंतजार करते हैं,
उसी #शाम का जो अब नहीं आती!        
अब तो बस,
सुबह के बाद सीधे रात हो जाती है।

सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

गांव में छुट्टियां


✍️ गांव में छुट्टियां___
अब के बरस दादू के संग
छुट्टी सभी बिताना ...
भरी दुपहरी चढ़ें नीम पर
गांव की सैर कराना...
पक्षियों को जब डालें दाना
चिड़िया चींचीं चहचहाती ...
कबूतर करता गुटर गूं
कोयल मीठे गीत सुनाती...
मोर नाचे पंख फैलाए
छोटी गिलहरी भी बतियाती...
सुबह सवेरे जाएं खेत पर
पिएं गुड़ छाछ लोटा भर कर ...
ताऊजी लाएं दूध काढ़ कर
कच्चा दूध पी जाएं गट गट...
कद्दू की सब्जी के संग में
खट्टी मीठी कैरी की लौंजी ...
पूरी, गोल मटोल है फूली 
बनाती चाची,अम्मा और भौजी ...
दादी बिलौती दही छाछ
रोटी देती मक्खन वाली ...
दादू के संग जाएं बाग में
चकित देख,आमों की डाली ...
खीर बनाती मेवों वाली
खाते भर कर खूब कटोरी ...
लेकिन डैडा को भाती
बस आलू भरी कचौरी ...
सांझ ढले, चांदनी रात में
खेलें छुपन छुपाई ...
अपनी बारी आने को थी
दादी ने आवाज लगाई ...
ठंडे ठंडे बिस्तर छत पर
बच्चों को खूब आनंद आता ...
बड़े भैया, दीदी, बुआ
फिर सुनाएंगे भूतों की गाथा ...
हंसी खुशी से गया महीना
पता नहीं चल पाता ...
बेटा बेटी भी होते उदास
काश!
एक दिन और बढ़ जाता...
बीता महीना, वापिस आने का
करते हैं फिर वादा ...   
अगले बरस की राह हैं तकते
बूढ़े नानूनानी, दादी दादा!!
मिल गया जैसे टॉनिक
और जीने का सहारा ...
अब तो बीत जाएगा
मीठी यादों में, पूरा साल हमारा .........🙂


रविवार, 6 अक्तूबर 2019

बीमारी और सोच


✍️उम्र के हर दौर में बीमारी और सोच___
हर उम्र के साथ बीमारियां भी अलग अलग तरह की होती हैं। और साथ ही बीमारी को लेकर मतलब, सोच भी बदलती रहती है। उम्र के जीवन के चार #आश्रम, जिसमें चौथा आश्रम (संन्यासाश्रम) तो अब लगभग खत्म ही हो गया है इन तीनों अवस्थाओं में बीमारी में, सेवा के भी अलग-अलग भाव होते हैं। #बचपन में बीमारी में घरवाले, दूसरे सदस्य भी चिंता करते हैं, हर तरह से स्वस्थ रखने के लिए चिकित्सा के साथ ही तरह-तरह के उपाय खुशामद भी करतेे हैं, और येन केन प्रकरेण किसी ना किसी तरह स्वस्थ करने में जुटे रहते हैं। जरा सा बीमार होने पर मातापिता ही नहीं, बल्कि घर के सभी सदस्य भी विशेष चिंतित हो जाते हैं। बच्चे को परेशान नहीं देख सकते हैं, इसलिए उसको विशेष लाड़, ध्यान रखा जाता है, चाहे कुछ हो जाए सब चाहते हैं कि उनके लाड़ले स्वस्थ रहें। #युवावस्था में शरीर भी समर्थ होता है बीमारी से मुकाबला करने के लिए, और स्वयं भी तन, मन, धन से सशक्त होता है। कुछ जवानी का अपना एक आकर्षण भी, अगर पद प्रतिष्ठा हो तो कहने ही क्या, जिसमें साथी लोग भी तवज्जो देते हैं। इसलिए बीमारी इस उम्र में व्यक्ति को ज्यादा परेशान नहीं करती। लेकिन बुढ़ापे में, बीमारी में कुछ तो भय सताने लगते हैं, बीमारी का मतलब लगभग मृत्यु का वरण ही हो जाता हैमिलने वाले, सेवा करने वाले भी ऐसी ही बातें करने लगते हैं कि बस अब तो #प्रस्थान की तैयारी कीजिए। बूढ़ा व्यक्ति जब बीमार होता है तो सबसे ज्यादा फिक्र यह सताती है कि देखभाल कौन करेगा। उम्र के तीनों दौर में, सबसे ज्यादा प्रभावित वृद्धावस्था ही होती है। इसलिए इस उम्र में जो बीमारी का अर्थ ठीक से समझ लेगा, उसके लिए उम्र भी मददगार हो जाएगी। वृद्धावस्था में जब भी बीमारियों से घिरे हों, उस समय सारी पुरानी उपलब्धियां, स्वाद, जवानी याद आती हैं, अपनी अधूरी महत्वाकांक्षाओं को बिल्कुल याद नहीं करना चाहिए, और ना ही अपने अतीत को याद कर दुखी हों। समय का पहिया घूमता रहता है कभी घी घना, तो कभी मुट्ठी चना, वर्तमान में रहना सीखें। एक तो वृद्ध शरीर, ऊपर से ये महत्वाकांक्षाएं, उपलब्धियां परेशान करने लगते हैं। अतीत में ही खोए रहना अपने गुणगान करना भी एक #बीमारी ही समझो।
हम किसी भी उम्र में हो एक तैयारी बीमार व्यक्ति को जरूर करनी चाहिए और वह है #सहयोग। जब लोग आपकी सेवा कर रहे होते हैं, तब आपको भी उन्हें खूब सहयोग करना चाहिए। केवल सेवा करवाने के उद्देश्य से सेवक को निचोड़िए मत। हायतौबा ना मचाए।
दूसरी बात बीमार व्यक्ति को #धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए, बोले कम सुनें ज्यादा। क्रोध से बचें। अन्यथा सेवा करने वाले इसी बात से परेशान हो जाते हैं कि इनकी सेवा में सबसे बड़ी दिक्कत ये (बीमार वृद्ध) खुद हैं। ध्यान रखिए बीमारी किसी को नहीं छोड़ने वाली, यदि उम्र के तीनों दौर में बीमारी को ठीक से समझ लिया जाए तो आधा इलाज तो आप स्वयं ही कर लेंगे। बाकी आधा इलाज चिकित्सक संभाल लेंगे, और इन सब के साथ जब प्रभु कृपा मिल जाए तो फिर बीमारी जीवन के लिए बोझ नहीं, आराम से गुजर जाएगी।

शनिवार, 21 सितंबर 2019

जीवन......मृत्यु !

✍️ जीवन ....मृत्यु, एक सच _____
जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहा शाम।
कि रस्ता कट जाएगा मितरां.............
जीवन और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जीवन निरंतरता का नाम, तो मृत्यु एक ठहराव, पड़ाव है। केवल अवस्था बदल रही होती है। प्रकृति में सभी कुछ परिवर्तनशील है, हर क्षण बदलता रहता है।जीवन है तो मृत्यु भी होगी, लेकिन वृद्धावस्था के साथ ही कई बार लोगों को यह डर सताने लगता है, और वह मृत्यु से भयभीत होने लगते हैं। इसकी गहराई को समझें, इस के स्वागत के लिए तैयार रहें। जिसका भी सृजन हुआ है विसर्जन निश्चित है। जीवन और मृत्यु को बड़े ही सुंदर तरीके से समझा जा सकता है। पंचभूतों (आकाश, जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी) से बने शरीर का ईश्वरीय महतत्व आत्मा, प्राणमय शरीर से संयोग जीवन एवं वियोग है मृत्यु है। दिन का अंत रात्रि है, तो जीवन का अंत मृत्यु है। मृत्यु के बाद फिर एक नवजीवन का आरम्भ होता है और यह क्रम सतत् चलता रहता है। पाश्चात्य विचारक हुए हैं कोल्टन, उनके शब्दों_ जिन्हें स्वतंत्रता भी मुक्त नहीं कर सकती, उन्हें #मृत्यु मुक्त कर देती है। यह उनकी प्रभावशाली चिकित्सा है, जिन्हें औषधि भी ठीक नहीं कर सकती। यह उनके लिए आनंद और शांति की विश्राम स्थली है, जिन्हें समय सांत्वना नहीं दे पाता। जिस प्रकार दिनभर की थकान के बाद हम निद्रा के आगोश में अपनी थकान मिटाते हैं और प्रातः स्फूर्ति, ताजगी के साथ उठते हैं, उसी प्रकार  मृत्यु भी एक महानिद्रा है।
जो आया है सो जाएगा, राजा रंक फकीर।।
गीता में भी कहा गया है, आत्मा तो अमर है वह केवल शरीर बदलती है। मृत्यु को ऐसा जानिए जैसे वस्त्र पुराने हो गए हों, उन्हें छोड़ कर और नवजीवन यानि नए कपड़े बदलना। और यह कार्य हमारी मां की तरह प्रकृति माता बखूबी निभाती है। प्रभु के इस निमंत्रण को सहर्ष स्वीकार कीजिए, मृत्यु जीवन का आवश्यक अंग है, अगर मृत्यु ना हो तो जीवन भार लगने लगेगा। इस तरह यह एक विश्राम अवस्था भी है। विदेशों में मृत्यु को अंत माना जाता है, लेकिन अपने देश मृत्यु के बाद नव जीवन शुरू करना मानते हैं, जहां से हमने छोड़ा था,या जो हमारे संचित कर्म हैं, उनके अनुसार आगे की दिशा तय होती है। हमारे देश में मृत्यु को भी उत्सव की तरह देखा जाता है। अंत में एक गाने के बोल याद आ रहे हैं ___
जिंदगी एक सफ़र है सुहाना
यहां कल क्या हो किसने जाना।
मौत आनी है आएगी इक दिन
ऐसी बातों से क्या घबराना।

बुधवार, 11 सितंबर 2019

जिंदगी से जुड़ी छोटी छोटी बातें


✍️जिंदगी से जुड़ी छोटी छोटी बातें।
माता पिता अक्सर बच्चों की प्रशंसा करने में कंजूसी कर जाते हैं, या अनावश्यक प्रशंसा करते हैं, दोनों ही चीजें गलत है। लेकिन बच्चे के अच्छे व्यवहार और उसके तरह तरह के प्रयासों की सराहना, प्रशंसा अवश्य करनी चाहिए। बचपन से ही हमें अपने बच्चों में सही दोस्त बनाने की, गलत दोस्तों को दूर रखने की समझ विकसित करनी चाहिए। बच्चों को समय का सम्मान करना सिखाएं। बच्चों को समय की कीमत जरूर समझनी चाहिए। समय की पाबन्दी आने से, उनकी जिंदगी में आगे के बहुत से कार्य #आसानी से हो जाते हैं। समय पर उठना, तैयार होना उन्हें स्कूल के जाने में होने वाली हड़बड़ी, परेशानी से बचाएगा। बच्चों को किसी की भी कोई चीज लेने से पहले उससे अनुमति लेने के लिए भी सिखाएं, क्योंकि कई बार छोटे बच्चे स्कूल में किसी दूसरे की कोई वस्तु अच्छी लगने पर (बाल सुलभ प्रकृति, इसे चोरी नहीं कह सकते) अगर घर ले आते हैं, तो बच्चों को सही गलत का अंतर समझाएं एवं उसको अगले दिन अवश्य लौटाने के लिए कहें। आप, बच्चों का स्कूल बैग प्रतिदिन चैक करें, कितनी #मांएं ऐसा करती हैं, और अगर देख भी लेती हैं, तो कितनी माताएं अपने बच्चों को समझाती हैं। बच्चों को प्लीज, थैंक यू कहना सिखाएं। एवं खुद भी अच्छा या बुरा होने पर थैंक्स और सॉरी कहें, झिझकें नहीं। किसी को सॉरी कहने का यह मतलब नहीं कि आप कमजोर हैं। बल्कि यह आपके मजबूत चरित्र को दर्शाता है।

मंगलवार, 3 सितंबर 2019

भाषा और संस्कृति



️ ✍️ #भाषा और संस्कृति_____
भाषा संस्कृति की आत्माभिव्यक्ती का साधन है। मनुष्य की पहचान भी भाषा से ही है। भाषा ही मनुष्य को औरों (चौपायों) से  भिन्न करती है, यह जाति, धर्म, व्यवसाय, समाज संस्कृति के कारण भिन्न भिन्न हो सकती है। फिर भी विचार संप्रेषण के लिए भाषा ही माध्यम है। समाज के सांस्कृतिक पतन की आहट सबसे पहले उसकी भाषा में सुनी जा सकती है। हमें इतना समृद्ध साहित्य, समाज, भाषा, सब कुछ विरासत में मिला है, फिर भी हम उसकी कद्र नहीं करते हैं। भाषा द्वारा किया गया संस्कृति का चीरहरण, भाषा का दुरुपयोग आज देखने को मिलता है, उतना पहले नहीं था। वजह कुछ भी हो सकती है, व्हाट्स एप, हिंग्लिश और नई पीढ़ी द्वारा ईजाद की गई नई vocabulary  एवं परिवारों में जड़ें जमाती संवाद हीनता। इसलिए रोजमर्रा की भाषा में भी इसके दुरुपयोग बहुतायत से देखने को मिलता है, ऐसा करने से बचें। यह सहयोग, कम से कम उन व्यक्तियों से तो अपेक्षित है, जो यह लेख पढ़ रहे हैं। जैसा कि आजकल देखने में आता है, बच्चे भी अपने पिता से #यार कह कर बात करते हैं, उधर पिता भी अपनी बेटियों तक से #यार कह कर बात करते हैं, जो कि बिल्कुल ही सभ्यता ही नहीं अपितु संस्कार विहीन है। देखने में यह भी आता है कि, बड़ों से बदतमीजी से व छोटों से खुशामद वाली भाषा में बात करते हैं, जो कि बिल्कुल ही उचित नहीं है। यार शब्द लड़कों का अपने #बराबरी दोस्ती में तो ठीक है, लेकिन लड़कियों के लिए यह शब्द उचित नहीं है। कुतर्क करने के लिए हो सकता है, मेरे विचारों को रूढ़िवादी कहा जाए। मुझे एक वाकया याद आ रहा है, मेरी बेटी की मित्र आई हुई थी। किसी बात पर चर्चा के दौरान बेटी ने एक #शब्द #क्लिष्ट) का प्रयोग किया। उसकी मित्र को यह समझ में ही नहीं आया, फिर उसने इसका मतलब पूछा। वो हैरान थी, की तुम लोग ऐसे कठिन शब्दों का प्रयोग कैसे करते हो, जबकि यह हमारे परिवार में आम बात है। एक तो आजकल बच्चों को शुरू से हॉस्टल भेज देना भी संस्कृति से दूर कर रहा है। बच्चा पढ़ाई में अच्छा हो सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि संस्कारों में भी अच्छा हो। क्योंकि उम्र के शुरुआती वर्षों में, उस समय वह अपने मन की कर सकता है। और कोई भी गलत चीज आसान भी लगती है, एवं आकर्षित भी करती है। सबसे पहले भाषा पतित होती है, भाषा का स्तर गिरता है, और इसके बाद संस्कार नष्ट होते हैं। वहीं से सभ्यता और संस्कृति का कलंकित होना, और आगे जाकर संस्कृति व सभ्यता का नष्ट होना आरंभ होता है। भाषा को लयबद्ध तरीके से प्रेषित किया जाए तो संगीत बन जाए, और लिपिबद्ध किया जाए तो ग्रंथ बन जाए। शब्दों का व्यवस्थित प्रयोग ही #मंत्र बन जाता है। तो अपनी भाषा और व्यवहार पर ध्यान दीजिए। बोली ही तो है जो मित्र बनाती है, और इसी भाषा से `जूता खात कपाल' कहावत सिद्ध हो जाती है। आप जितना अच्छा अपनी भाषा में सोच सकते हैं, उतना दूसरी में नहीं। इसलिए भाषा की समृद्धि के प्रयास जारी रखिए।